कविताएँ
रुनु महांति
अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित
प्रेमिका
जिस राह पर वह चलती है
वहाँ अनेकों की आँख फिरती है।
अनेक अकर्म शिला फेंक कर
एक मोती
प्रेमिक हाथ की मुट्ठी में रखती ।
प्रेम एक साधना, कोई खेलघर नहीं
प्रेमिका एक मयूरकंठी साड़ी,
पटवस्त्र नहीं।
जैसा वह हीरे का टुकड़ा
हजार गलमालाओं में
वह निःसंगता का मंत्र पढ़ती।
नदी गढ़े, सागर गढ़े
भूगर्भ से खुल आए बन्या में।
रवि अस्तमित के समय भी वह झटकी
ऊँची भूमि को जाए
अमृत पीए - विष भी पीए।
पिछली जमीन उड़ाने
त्रिवेणी घाट पर डुबकी लगाए।
पेड़-पौधे में बह जाए
जैसे वह धीर पवन है।
वह कितनी सीधी है, सुबह की धूप की तरह
वह कितनी चंचल
जैसे साँझ की बदली, सागर की लहर।
रंगमय उसकी सत्ता,
पुरुष दहल जाएगा
उसकी कटाक्ष एक ऊँचाई की बाड़।
कौन था साक्षी ?
उस दिन कौन था साक्षी ?
चिड़िया या चैती ? सागर या सूनी रात
फूल या फागुन, झींगुर या झाऊवन
कौन था साक्षी उस दिन ?
मैं किस खेत का तिनका
तुम किस वन की लड़की
किस स्रोत, किस नदी ने
हमें किया था एक साथ ?
अब कौन किधर
जैसे भेंट हुई नहीं कभी कहीं।
तुम्हें कहती
कितने सुंदर दिखते सफेद धोती पहन
लो, अगरु-चंदन, दूब, फूल
रखे तुम्हारे पाँव के लिए सहेज रखे।
कहती कान में, तुम्हारे लिए
आज से अवशिष्ट रात।
वंदना
आज वंदना करनी है
इस रात की।
आज की रात और लौटेगी कल ?
होंठ से होंठ मिलाऊँगी
वन-बेर खिला दूँगी
फूस की झोंपड़ी में घर करूँगी
और जटा रँग दूँगी मयूर पंख में।
लहरों पर खेलूँगी
रँगोली आँकूँगी पानी पर।
आज वंदना करनी है हर पेड़ की,
हर पात, फूल, मेघ की।
साथी धू-धू पवन, और सागर लहरों की
या करूँगी चाँदनी रात की।
गूँथ रखूँगी स्मृति को।
आगे बढ़ा लूँगी आनंद को।
आज वरणमाला पहना देनी होगी
मेरे मीत को।
सूर्यास्त के बाद जिसने मुझे भेंट दिया है आलोक।
सहस्र देवताओं के नाम मैं कभी न लूँगी।
केवल रटती रहूँगी
प्रेमिक ! प्रेमिक !
वर्षा होने पर चढ़ना किसी के बरामदे में
वर्षा होने पर चढ़ना किसी के बरामदे में
झड़ में जैसे किवाड़ खिड़की बंद करना
आओ सम्हाल लें दबाब को।
देह से झाड़ लें धूल,
साफ कर लें काँच की किरचों को।
पिंजरे में बंद पक्षी, पंछी नहीं
जो नहीं उड़ सके आकाश में।
मैं क्या नहीं जानती ?
नंगा होना कितना असम्मान ?
अगर साड़ी में लगी आग
फेंकें या नहीं फेंकें ?
जीवन में दुख तो हैं गाड़ी भर
कूड़े की तरह
तीन भाग दबाए बैठा घर।
सब क्या दिखा सकती ?
मैं पाँव से छाती तक डूबी हूँ पानी में।
अब हम क्या करें ?
सीढ़ी चढ़ें या कुआँ में उतरें ?
पागल का कांड करना ?
पहाड़ को तोड़ना ?
भूतनी होना ?
मंडल में बैठना, मधु चूसना ?
या रूमाल उड़ाते चलें राज रास्ते पर ?
जितना गुणा करें, गुणनफल हमारी आत्मीयता।
खो जाएँ क्या ? पवन की तरह फूल में।
मीत रे ! प्राण पोखर न बने
सागर में अधिक पानी तो
सच कितनी अधिक लहरें !
प्रेमिका की जन्मकुंडली तो अलग
ताकि पहचानें मंदिर को,
हों चक्र, कलश और पताका।
बड़ी बात
व्यवस्था के बीच रह
एक हो सकेंगे रसिक।
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